Monday 7 December 2015

आँखों के तिल में दिखा गगन--उत्तर स्फुरण

रचनाकार मेंप्रकाशित  7-12-2015

आँखों के तिल में दिखा गगन   का   उत्तर भाग


             



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        उत्तर स्फुरण
           प्रसरण
समय के बदलने के साथ
युग बदलते हैं, दृष्टि बदलती है
संवेदना के रूप, विषय
नए होते हैं
भावना की तरंगों में
नई उष्मा उमड़ती है
अभिव्यक्तियों को
नया होना पड़ता है
युग के अनुरूप-
सोचने में, संवेदना में, परिप्रेक्ष्य में.

रश्मियों की डोरियों से
खींचा जाकर
सूरज रोज उगता है
पीतवर्णी आभा लिए
ऑंखों के कोए में तने डोरे-से
सज्जित.

उसे 
उषा की भींगी पलकों में
नई भंगिमा लिए
क्षितिज रोज मढ़कर मेघ-बल्लरियों से 
और उससे ही बाँध
ढेले-सा उछाल देता है
आकाश में.

इस उछाल के दौरान
बाल, किशोर, युवा होता सूरज
अकूत उर्जा अर्जित कर
प्रखर किरणें बिखेरने लगता है.

रोज तपती है दोपहरी
जीवन को छाया का स्थल ढॅूढ़ने को
बाध्य करती, और
साँझ ढले
गोधूली के सिंदूर पूरित
मेघ-खंडों से
रोज विलसित होता है
वह.

सूरज
उन्नीस सौ चौंसठ में भी
ऐसे ही ढला था एक दिन
पश्चिम के क्षितिज पर
और मेरी ऑंखों में रच गया था
प्रकृति का एक अनूठा सुरम्य दृश्य
और दाहा नदी के जल में
प्रतिबिंबित हुआ था
झाड़ियों के घूंघट में सज.

तब मेरा मन युवा था
पल अनछुए थे
तब अनेक अंतर्स्पशी बिंब उभरे थे
मेरी ऑंखों के तिलों में
मैं अपलक खो गया था
उस क्षण की नाट्य लीला में
अद्भुत थी वह श्री
बीथी में डूबते सूरज की
छिटपुट मेघ-खंडों में खोकर
निकलीं उनकी रश्मियाँ
कर रहीं थीं रचना
अनेक चित्रवीथियों की.

उन दिनों मेरे मन पर
मेरा हृदय हावी था
मैं
कुछ श्री-प्रेमियों की पंक्ति में था
प्रकृति के सहचर कवि
मेरे भाव-संसार में उर्मिल थे
पंत, निराला मेरे पोरों में
उच्छल थे.

स्वभाव से मैं कवि-हृदय
समय के प्रवाह में
राहों के अन्वेषियों की
प्रयेगाभिव्यक्त
काव्य-पंक्तियों से टकराया
हाँ टकराया
अमूमन कवि-हृदय
काव्य-पंक्तियों की ओर
खिंचता है
पर इनसे मुझे टकराना पड़ा
बुद्धि के तनावों से प्रसूत
ये पंक्तियाँ
बुद्धि के जटिल वैभव से
संवलित थीं
इनमें प्रकृति अपनी नहीं लगी
फीकी स्पर्श-सिहरन संभरित 
ये पंक्तियाँ
हमारे अंतरानंद-कोष को
खोल नहीं सकीं
उलटे, कविता
पूर्व लग्नों के बंधों से
बँधती गई-
'प्रगति-', 'प्रयोग-', 'अ-', 'नई-' आदि
उपकूलों से बहती रही
उसमें स्वाभाविक कल्लोल और
वीचियों की धुन नहीं थी
वरन् कूट गह्वरों की गुत्थियाँ थीं.

कविता की तरलता खोती गई
वह रेत में समाती-सी लगी
किंतु कुछ बूँदों में सिमटी
यह तरलता
रेत को कितना तर कर पाती.

रेत की बेचैनी में
यह बुद्धि-काव्य
लोक में स्थापित तो हुआ
पर टुकड़े आंदोलनों में बिखरा
यह बीतती शताब्दी तक
बिखरता चला गया.

मेरा कवि-हृदय
उस बिखराव का हिस्सा
तो नहीं बना
पर एक रिक्तता के बोध ने
प्रकृति के साहचर्य से
कुछ काल के लिए
मुझे विरत कर दिया.

इस समय मैं पुनः
सृष्टि की तरलता से रूबरू हूँ
जो काव्य की ही तरलता
और प्रकृति की सरलता है.

प्रकृति सरल है, तरल है
हृदय में उसका अंतर्भाव
आज भी हमारे रोमों में
आनंद की पंखुरियॉ खिलाता है.

इस लिहाज से
मैं आज भी युवा हूँ
मेरे रगों के लहू में
आज भी उष्णता है.

इस समय मैं खड़ा हूँ
राप्ती-रोहिन के संगम पर
यह राप्ती वही अचिरा है
जहाँ कभी
हर्षवर्धन की सेना टिकी थी
रोहिन भी वही है
जिससे पानी लेने के
दो गणराज्यों के झगड़े को
बुद्ध ने सलटाया था.

शाम का झुटपुटा है
उत्तर से सरकती आ रही
पतली धार वाली रोहिन
चौड़ी धार वाली राप्ती में
ऐसे समा जा रही है
जैसे उसे
कोई नीड़ मिल गया हो
जिसमें ढलते सूरज का
दीप शिखा-सा
मद्धिम प्रकाश हो.

यह रोहिन
कुछ घायल-सी लगती है
नीड़ में थरथराती घुस रही है
लगता है पड़ोस के भूकंप से
वह बुरी तरह प्रकंपित है.

किंतु रोहिन
तुम अकेली नहीं हो
राप्ती अपनी तरंगोच्छल बाँहों से
तुम्हें थाम रही है.

यद्यपि इस क्षण
मैं लोक-कलरव से दूर
प्रकृति की शरण में हूँ
किंतु प्रतीत होता है
प्रकृति के पालों में होना, जीना
आज सरल नहीं है
पृथ्वी के हर कोने से
आती हवाएँ
हर पल हमसे टकरा रहीं हैं
अभी पीछे रेल-पुल से
एक ट्रेन गुजरी
आज कुछ अनमनी सी लगी
उसकी गति
स्यात उसमें कोई व्यथा-भार था
डससे मेरा मन तो सिकुड़ा ही
प्रिश्चम के क्षितिज पर
कुछ ललाई छितर गई
रक्तिम छींटों का विद्रूप लिए
उसे देख मेरा मन
जाने कैसा हो गया
लगा जैसे मनुष्यता
अभी अभी लहू लुहान हुई है कहीं
डंक से आतंक के.

स्रंध्या के झुटपुट में ही कभी
नृसिंह ने फाड़ा था पेट
हिरण्यकशिपु का
आतंक के अंत के लिए.

कैसी बिडंबना है
आतंक ढाने में भी लहू बहा
और आतंक मिटाने में भी
पर इन दोनों घटनाओं में
एक सूक्ष्म अंतर है
एक में प्रमादी
अपने में नहीं होता
दूसरे में रक्षक
अपने में होता है.

आज दुनिया
बहुत आगे बढ़ आई है
बिना लहू बहाए भी अब
आतंक को काबू करने के सूत्र
हमारे पास है.

अद्यातंक के
घनघोर घटाटोप को
विदीर्ण करने को
निरंतर प्रयत्नशील हैं हम
सफल भी होंगे, धीरज है
प्रकृति भी साथ होगी
प्रकृत भी होंगे हम.

जब हम निरभ्र हो सोचते हैं
हम पाते हैं
प्रकृति सदा हमारे साथ है
अभी चंद क्षणों का साथ
जो उससे टूटा, जिसे
हमारी संवेदना के अहसास ने तोड़ा
पर इन टूटे क्षणों के अहसास में
कुछ अँकुरा भी
जो पंखुरित हो खिल आया है
पूर्व के क्षितिज पर.
वह अंकुरित शशि
इस क्षण लेटा है  
तुहिन-मेघों के अंक में.
इस समय मेरा मन
आतंक की लपेटे में नहीं है
वह महत्वशाली है भी नहीं
उसके होने से
मन का कोई तंतु टूटता है
सर भन्ना जाता है
प्रकृति के साथ होने से
यदि दृष्टिपथ में कुछ खिलता है
अंतर के आकाश में भी
कोई खिलावट अनुभूत होती है
त्वचा के रंध्रों से
ग्रंथियाँ बहने लगती हैं
फिर हम अस्तित्व की लय में
होने लगते हैं.

इस पल
आकाश के पश्चिमी तट पर
सूरज नदी में डूब रहा है
और पूरब के क्षितिज पर
बादलों के झीने घूँघट से
चंद्र-किरणें रिस-रिसकर
चाँदनी छिटकाने को उद्यत है
बादलों से
घिरता, ढँकता, छूटता चाँद
एक ऐसी छवि ढा रहा है
जिसे देख अनेक बिंब रच रहे हैं
मेरी ऑखों में.

मेरा चितेरा
मेरे मन के ऑंगन में
कभी तारे झिलमिला देता है
कभी मेघ-खंड से ढँक कर
पूर्ण चंद्र-ग्रहण की-सी दीप्ति
उकेरता है.

संध्या के हल्के झुटपुटे में
राप्ती-रोहिन का संगम-स्थल
एक तंग घटी में होने का
आभास देता है
दो तरफ से उँचे उँचे बंधों
दो तरफ से सड़क-रेल पुल
और चतुर्दिक वृक्षों,
जिनके उत्तुंग शिखरों की टहनियाँ
एक कुशल चितेरे द्वारा
आकाश में खचित-सी लगती हैं,
-से घिरा यह स्थल
किसी आनुष्ठानिक स्थल-सा है.

इस संगम पर रोहिन
राप्ती से ऐसे मिल रही है
मानो नृत्यरत कोई नर्तकी
सांध्य-नटी को
जलार्घ्य दे रही है
और यह जलार्घ्य ले राप्ती
चंद्र-किरणों की चित्रकारी से सजी
सर्पिल गति से
आगे बढ़ रही है
मिट्टी के अनगढ़ घाटों को
पेंदी में छूती मंथर मंथर
शहर विद्युत-बल्बों की ऑंखों से
झाँक रहा है
नदी की तली में
जैसे वह टटोल रहा हो समुत्सुक
नदी के होने को.

निर्बल दुर्बल
ऑखों की मुट्ठी भर काया वाली
यह नदी
पावस के दिनों में
एक विराट फलक वाली
झील हो जाती है
जिसमें डूबे गाँव
टापू-से हो जाते हैं.

उस समय
कटोरेनुमा थल में बसा यह शहर
थर थर काँप उठता है
कहीं रोहनि को उदरस्थ कर चुकी राप्ती
बंधों को तोड़
पुलों नालों से रिस
उसे ही न निगल ले.
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शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
715 डी, पार्वतीपुरम्,चकसाहुसेन
बशारतपुर, गोरखपुर 2730004
उ प्र.