Wednesday 25 March 2015

आजादी एक भिन्न सन्दर्भ

'रचनाकार ' में प्रकाशित --३/२०१५

शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

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आजादी एक भिन्न संदर्भ

तुम्हारी सोहबत में आने से पूर्व
मुझे भी यही लगा था-
-कि आजादी
एक दुर्लभ वस्तु है
उसे पाने के लिए
दूसरों से जूझना पड़ता है
जंगलों, पहाड़ों की खाक छाननी पड़ती है।

-कि आजादी एक माँग है,
जो माँगी जा सकती है

मगर नहीं
तुम्हारी निपट निजता में डूबकर
मैंने जाना कि
आजादी एक शान चढ़ी तलवार है
जिसपर पैर रखे जाएँ
तो रक्त के फौव्वारे फूटते हैं।

चिड़िया ने कैसे समझ लिया
वह संत्रास के हर क्षण से
निरापद ही रहेगी।

पंख के जकड़े जाने की संभावना से
उसने आँखें कैसे मूँद ली।

अगर सके पंख जकड़े भी गए
तो बँधे पंख की कुंठा
और संक्रमण-संघर्ष की उत्तुंगता
दोनों में से एक को चुनने को
वह आजाद है।

वह संक्रमण-संघर्ष को चुनने से
क्यों कतराए
आजादी तो
मेघ-संकुल अंतरिक्ष में
अस्तित्व के उन्मुक्त उड़ान की
ऐतिहासिक अंतर्धारा भी है।

इतिहास के द्वन्द्वों, अंतर्विरोधों से
लड़कर
आजाद रहने की मनोवृत्ति भी तो
आजादी का एक पहलू है।

नुक्कड़ का एक सिपाही
गालियाँ चबाता है, चबाने दें
पेट-फूली औरत
उधर ध्यान ही क्यों दे।

वह पेट फुलाने को आजाद थी
तो उसे सँजोने को भी आजाद है।

संत्रास आएँगे,
पत्थर चबाने पड़ांगे।

भिखमंगेपन के लिए
आजादी की कोई अर्थवत्ता नहीं
जो बाजार में लुकाठी लिए खड़ा है
आजादी उसकी है।

सृजन की पीड़ा कोई प्रसूति से पूछे
वह बच्चा जनने को आजाद है
पर संक्रमण-पीर के थपेड़े
उसे झेलने ही पड़ेंगे।

अब जंगल भागकर
पत्थर चबाने से काम नहीं चलेगा।

अब सरे बाजार में
प्रतिरोधों की जकड़न में
अपने अंतर्लोक में झाँकना होगा-
हम अपने अस्तित्व के कितने निकट हैं।

हमारे अस्तित्व के तट से ही
हमारी आजादी की धारा फूटती है।

हमने होना स्वीकारा है
तो होने की सर्व स्वीकृति के लिए
संघर्षों के सातत्य की दुंदुभी
फूँकनी ही पड़ेगी।
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Sunday 22 March 2015

ईश्वरोक्ति

शेषनाथ प्रसाद
शिक्षा: बी. एस. सी., बीएड, एम.ए. (हिंदी), बी. ए. (संस्कृत), सेवानिवृत्त हिन्दी प्रवक्ता।

प्रकाशित कृतियाँ-
कविता संग्रह- अकेले की नाव अकेले की ओर
इसके अतिरिक्त विभिन्न पत्र पत्रिकाओं और वेब पर रचनाएँ प्रकाशित

ईमेल- sheshnath250@gmail.com
 ईश्वरोक्ति

(एक कवि ने अपनी एक कविता में किसी मंदिर में प्रतिष्ठित देवप्रतिमा के पूजन में श्रद्धालुओं के सूनापन
को देख ईश्वर को रोता हुआ चित्रित किया है। व्यक्ति-चेतना की इस दृष्टि को अपरिपक्व मानते हुए मैंने अधोलिखित कविता अपने दृष्टिकोण से लिखी है।)

चिदात्मन्!

तुम मेरे बारे में सोचते हो
मेरी दुर्दशा से पीड़ित होते हो
कुछ अद्भुत है यह

पर तुम्हें जानना चाहिए
मैं कोई स्थूल सत्य नहीं हूँ
मैं सृजनशील सत्य हूँ
और तुम
इस सृजनशीलता की परिणति हो

स्थूल शिलाओं में
मेरी प्रतिष्ठा तो तुमने ने की है
तिरुपति हो या शिरडी, या
अन्य कहीं

इनके एक एक कण में
तुम्हारी ही आकांक्षाओं के
अनुवाद टंकित हैं
दृश्य या अदृश्य

मेरे सर्वरूप का तुम्हें भान है
हो भी क्यों न
तुम्हारे जीव-द्रव्य के केंद्र में
मेरी तरल विद्यमानता ने ही
तुम्हें अंकुरित और तंत्रस्थ किया,
अस्तित्व की सृजनशीलता के
किसी क्षण में
तुम्हें ‘मैं’ का उद्बोध हुआ
और तुम मुझसे अलग अनुभव करने लगे

मैं सभी मनु-पुत्रों में
उनकी स्नायुओं की क्षमतानुसार
शक्तिरूप सक्रिय हूँ
मेरी सृजनशीलता के दरम्यान ही
उन्हें उनकी इयत्ता मिली है
यही उनका ‘मैं’ है
यही तुम हो
यही 'मैं' तुम्हारी व्यष्टि है

इन्हीं व्यष्टियों में, कुछ ने
अपनी वांक्षानुरूप
मेरे रूप गढ़ लिए हैं
और मेरे अनुभूतिगम्य रूप को
वरद मान
अपनी कामना को साधते हैं

तुम वर्तमान की संवेदना से सने हो,
अस्ति और नास्ति के तर्क में
उलझे तुम्हें
मेरे दुखी मन के
आँसू दिखते हैं
आँसुओं में ही तुम
मेरा वास भी बताते हो
तुम्हारी कल्पना इन आँसुओं को
वैकुंठ में उड़ा देती है
अपने गुजर-बसर के लिए
मुझसे बहुत कुछ माँगते हो
और प्रार्थना के फलित न होने पर
जाने कितने व्यंग्य विद्रूप के
मुझपर तीर चलाते हो

पोथियों में तो
मैं अब भी बेमानी हूँ, क्योंकि
शब्दों के अंतराल को
तुम पढ़ना भूल गए हो
इसे पढ़ना तुम्हारे होने जैसा है
होनी मेरे अस्तित्व को नहीं ललकारती
होनी तुम्हारी क्षमता पर विहँसती है

मेरा निधन निश्चित है
तुम अभी सोचते हो,
पश्चिमी तत्वदर्शी नीत्से तो
मुझे कभी का मार चुका है
(“ईश्वर मर गया है”)
पर विडंबना देखो
मैं हूँ कि अभी भी
तुम्हारी स्नायुयों में धड़कता हूँ
तुम्हारी उलाहना, आक्रोश
और विरोध में अंतरस्थ

मंत्रों से अनुप्राणित,
और पत्थरों में प्रतिष्ठित
मेरी कला-मुखर छवि की मूकता
तुम्हारे भीतर कुछ तोड़ती है,
इसी टूटने की अराजक ध्वनि
तुम्हारे कानों को छलनी करती है,

तुम्हारी अनियंत्रित जिजीविषा की
और क्या गति हो सकती है

अभी व्यस्तता के क्षणों में
कुछ पल के लिए ही सही
थोड़ा अपना तो हो लो
सावन की फुहार सी
तुम्हारी आन्तरिकता तुम पर
बरस पड़ेगी

तुम प्रकृति का आपूरण हो
मैं तुम्हारे अस्तित्व का आधान हूँ
तुम तथ्य हो, यथार्थ हो,
जहाँ तुम्हारे पैर मचल पड़ें
मैं हँसता दिखता हूँ
जहाँ आहट भर रह जाए
मैं रोता दिखने लगता हूँ
और न जाने कितनी प्रक्षिप्तियाँ
तुम मेरे चेहरे पर जड़ देते हो

जीवन के संसरण की गति
बहुत तेज है
तेज चलो,
अपनी अस्मिता को बरकरार रखे
तालमेल बिठा के चलो
तुम्हारी विश्लिष्ट अनुभूतियों ने
अभी तुम्हें खण्डित ही किया है
तुम्हार सामने
क्षणिकाओं की दीप्ति है
उसमें अभी
अगर वे चूरा बन गईं तो वह
अस्तित्व गोपन की कथा होगी
२३ मार्च २०१५