'रचनाकार ' में प्रकाशित --३/२०१५
शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
आजादी एक भिन्न संदर्भ
तुम्हारी सोहबत में आने से पूर्व
मुझे भी यही लगा था-
-कि आजादी
एक दुर्लभ वस्तु है
उसे पाने के लिए
दूसरों से जूझना पड़ता है
जंगलों, पहाड़ों की खाक छाननी पड़ती है।
-कि आजादी एक माँग है,
जो माँगी जा सकती है
मगर नहीं
तुम्हारी निपट निजता में डूबकर
मैंने जाना कि
आजादी एक शान चढ़ी तलवार है
जिसपर पैर रखे जाएँ
तो रक्त के फौव्वारे फूटते हैं।
चिड़िया ने कैसे समझ लिया
वह संत्रास के हर क्षण से
निरापद ही रहेगी।
पंख के जकड़े जाने की संभावना से
उसने आँखें कैसे मूँद ली।
अगर सके पंख जकड़े भी गए
तो बँधे पंख की कुंठा
और संक्रमण-संघर्ष की उत्तुंगता
दोनों में से एक को चुनने को
वह आजाद है।
वह संक्रमण-संघर्ष को चुनने से
क्यों कतराए
आजादी तो
मेघ-संकुल अंतरिक्ष में
अस्तित्व के उन्मुक्त उड़ान की
ऐतिहासिक अंतर्धारा भी है।
इतिहास के द्वन्द्वों, अंतर्विरोधों से
लड़कर
आजाद रहने की मनोवृत्ति भी तो
आजादी का एक पहलू है।
नुक्कड़ का एक सिपाही
गालियाँ चबाता है, चबाने दें
पेट-फूली औरत
उधर ध्यान ही क्यों दे।
वह पेट फुलाने को आजाद थी
तो उसे सँजोने को भी आजाद है।
संत्रास आएँगे,
पत्थर चबाने पड़ांगे।
भिखमंगेपन के लिए
आजादी की कोई अर्थवत्ता नहीं
जो बाजार में लुकाठी लिए खड़ा है
आजादी उसकी है।
सृजन की पीड़ा कोई प्रसूति से पूछे
वह बच्चा जनने को आजाद है
पर संक्रमण-पीर के थपेड़े
उसे झेलने ही पड़ेंगे।
अब जंगल भागकर
पत्थर चबाने से काम नहीं चलेगा।
अब सरे बाजार में
प्रतिरोधों की जकड़न में
अपने अंतर्लोक में झाँकना होगा-
हम अपने अस्तित्व के कितने निकट हैं।
हमारे अस्तित्व के तट से ही
हमारी आजादी की धारा फूटती है।
हमने होना स्वीकारा है
तो होने की सर्व स्वीकृति के लिए
संघर्षों के सातत्य की दुंदुभी
फूँकनी ही पड़ेगी।
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